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गुरुवार, 7 जनवरी 2016

तंत्र में बलि



तंत्र एवम् माँ



तंत्र के अनुसार ब्रह्मांड की रचना माँ काली ने की. हमारे शरीर के अंदर लघु ब्रह्मांड है, जिसमे काली के दस रूप मूलाधार में विराजमान हैं. तांत्रिक मंत्र मूलतः नाद -स्वर हैं, जो ब्रह्मांड में भी मौज़ूद हैं. जब हम किसी महाविद्या का मंत्र जाप करते हैं तो ब्रह्मांड में मौज़ूद उस नाद से जुड़ जाते हैं. इसलिये कोई भी दूसरा व्यक्ति आपके लिए मंत्र पाठ कर ही नहीं सकता. उसका फल आपको कदापि नहीं मिल सकता.

जहाँ तक बलि का सवाल है, जिस जीव की आप बलि ले रहे हैं उसका सृजन भी तो माँ काली ने ही किया है, तो आपको लाभ और उसे मृत्यु को वह कैसे और क्यों पसंद करेंगी ? स्पष्ट है कि यह सब कृत्रिम रूप से आरोपित प्रक्रियाएँ हैं जो कुछ शताब्दियों से तंत्र के नाम पर जोड़ दी गयी हैं.

शाक्त मत के दो संप्रदाय हैं-समयाचार या दक्षिणाचार, और वामाचार..हृदय में चक्र भावना के साथ पाँच प्रकार के साम्य धारण करने वाले शिव ही समय कहलाते हैं. शिव और शक्ति का सामरस्य है. समयाचार साधना में मूलाधार से सुप्त कुण्डलिनी को जगा कर अंत में सहस्रार में सदा शिव के साथ ऐक्य कराना ही साधक का मुख्य लक्ष्य होता है. कुल का अर्थ है कुण्डलिनी तथा अकुल का अर्थ है शिव. दोनों का सामरस्य कराने वाला कौल है.

कौल मार्ग के साधक मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन नामक पंच मकारों का सेवन करते हैं. ब्रह्मरंध्र से स्रवित मधु मदिरा है, वासना रूपी पशु का वध माँस है, इडा-पिगला के बीच प्रवाहित श्वास-प्रश्वास मत्स्य है.  प्राणायाम की प्रक्रिया से इनका प्रवाह मुद्रा है तथा सहस्रार में मौज़ूद शिव से शक्ति रूप कुण्डलिनी का मिलन मैथुन है
बलि का मतलब होता है किसी का अंत। इसलिए तंत्र में बलि की महत्वता है। क्योंकि बलि की गई वस्तु वापस नही आ सकती है। त्याग की गई वस्तु को वापस अपनाया जा सकता है पर बलि देने के बाद हम उस वस्तु को पहले के सामान कभी भी अपना नही सकते
आम साधक बलि का सही भावार्थ नही समझ पाते हैं। बलि को हमेशा किसी प्राणी के अंत से ही देखा जाता है। परन्तु सही रूप में बलि तो हमें अपने अन्दर छिपे दोष और अवगुणों का देना चाहिए। वाम मार्ग में तथा तंत्र में एक सही साधक हमेशा अपने अवगुणों की ही बलि देता है। हमेशा भटके हुए साधक, जिन्हे तंत्र का पूरा ज्ञान नही है वह दुसरे जीवों की बलि दे कर समझते हैं की उन्होंने इश्वर को प्रसन्न कर दिया। पर माँ काली का कहना है की उन्हे साधक के अवगुणों की बलि चाहिए ना की मूक जीवों की।
जहाँ तक बलि का सवाल है, जिस जीव की आप बलि ले रहे हैं उसका सृजन भी तो माँ काली ने ही किया है, तो आपको लाभ और उसे मृत्यु को वह कैसे और क्यों पसंद करेंगी ?
त्यागी व्यक्ति को हमेशा यह भय रहता है की कही वह अपनी त्याग की गई वस्तु,आदत को वापस न अपना लें। इसलिए त्यागी संत या साधक पूरी तरह से निर्भय नही हो पाते हैं। परन्तु तांत्रिक साधक जब बलि दे देता है तो वह भयहीन हो जाता है। इसलिए वह बलि देने के बाद माँ के और समीप हो जाते है।
यदि एक उच्च कोटि का साधक बनना है तो बलि देने की आदत जरुरी है। बलि का मतलब यहाँ हिंसा से कभी भी नही है।
एक सफल साधक साधना में लीनं होने के लिए निम्न प्रकार की बलि देता है:

निजी मोह
निजी वासना
लज्जा की बलि
क्रोध की बलि

इसलिए त्याग से उत्तम बलि देना होता है। जो मनुष्य गृहस्थ आश्रम में है तथा सामान्य भक्ति करते हैं वह अपने जीवन में अगर कुछ हद तक मोह,वासना,ईष्या,और क्रोध की बलि दें तो वह इश्वर के समीप जा सकते है और उनका जीवन सफल होता है।




भगवती प्रणाम.....!!!

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